Tuesday, September 21, 2010

धर्म,भगवान् और हम

भगवान् वैसे ही हैं जैसा रिश्ता

हम माने की एक औरत हमारी माँ है और हम जब भी मुश्किल में होंगे वो हमारा सहारा होगी, हमारे आशु पोछेगी और हमे आगे बढ़ने का हौसला देगी और हम चाहे तो ये भी सोच सकते हैं की माँ वो है जिसने हमे पैदा किया बस और कुछ भी नहीं किसी भी मुश्किल में वो कुछ नहीं कर सकती तो वो सच में कुछ नहीं कर पाएगी

धर्म वो है जो हमे इस रिश्ते पे विश्वास दिलाने की कोशिश करता है

और हम वो हैं जो चाहे तो विश्वास करे या फिर इस दुनिया में निरे अकेले रहे !

चाह हमारी है फैसला हमारा है

Wednesday, August 11, 2010

जिंदगी हुई सस्ती

जब मैंने पहली बार एक रोड एक्सिडेंट देखा तो रूह काप गयी
कभी सोचती चालक की गलती थी, कभी सोचती उस जल्दी में सड़क पार करते इंसान की शायद।
जब कुछ ही दिनों में दूसरी बार फिर तीसरी बार और फिर हर २-३ दिन में १ ,
लगा ओह भगवान् क्या इंसान की जान की कीमत कुछ भी नहीं ।
तो क्यों ये इंसान दूसरे इंसान को रौदते निकल जाते हैं, क्या उन्हें ये डर नहीं रह गया
की अपनी करनी का फल भोगना पड़ता है। शायद इसीलिए लोगों ने धर्मं बनाये थे
ताकि लोगों के दिल में कुछ तो प्यार होगा इंसान से, और डर होगा कुछ भी गलत करने से,
पर अब तो इंसान खुद को धर्मं और भगवान् से बढ़के मानने लगा है ।
कल की ही बात है ओउटर रिंग रोड सबसे भीडभाड की रोड पे एक भी बल्ब नहीं जल रहा था
धुत अँधेरे में लोग रास्ता पार कर रहे थे , और खुद को रोड एक्सिडेंट में स्वाहा कर रहे हैं
क्या है ये? क्या ये कोई सोची समझी चाल है ?

अब तो सुबह निकलते हुए भी डर लगता है जाने आज वापस लौट के घर पहुचेंगे या नहीं
हे भगवान् बहुत चला ली इंसानों ने अपनी मनमानी अब तो उन् पे लगाम लगाओ
वरना आपके बनाये इस खूबसूरत दुनिया को शमशान में बदलते देर नहीं लगेगी

सर्वे भवन्तु सुखिंह , सर्वे सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु , माँ कश्चिद दुख्भाग्भावेत

Tuesday, August 10, 2010

सावन

आया सावन झूम के !!!
बारीस के दिन है, खूब बारीस हो रही है
मै ही क्यूं सुखी रह जाऊ
बस निकल पड़ी उस दिन उनके साथ
यूं ही बारीस में घूमते रहे, लोग देखते कुछ जिज्ञासा से कुछ आश्चर्य से तो कुछ जलन से
हमे यूं घूमते और मस्ती करते पानी में छप्पा छई करते,झूला झूलते
दूसरे दिन ये हरी चूड़िया लेकर आये
लगा अभी बीते नहीं दिन सावन के
अब भी आता है सावन झूम के!!!!

Friday, July 30, 2010

वो रोई थी !!!

वो रोई थी फूट फूट के , अपनी माँ के आँचल में सिमट के, अपने भाई के कंधे से लगके , पिता के सीने से लगके ,बहनों से गले लगके हिचक हिचक के रोई थी अपनी बिदाई पे , सोचा मैंने नए घर जाने से या फिर शायद शहर से गाँव जाने के डर से या फिर गाँव में बिजली नहीं रहती मछर काटते हैं के डर से रो रही है बिचारी नयी नयी ब्याही बहिन

फिर से घर में शादी थी एक और बहिन की, मेरे सबसे करीब थी वो , वो भी रोई और बहुत रोई , शायद अनजाने ससुराल में कैसा व्यवहार मिलेगा वहां के डर से, खाना बनाने के डर से या फिर बर्तन धोने के डर से या फिर उस जीवनसाथी से जिसे २ महीने पहले जानती तक न थी वो , मैं फिर से डर गयी शादी के नाम से, पति के नाम से ससुराल के नाम से

फिर वो दिन भी आया मेरे ससुराल जाने का दिन, सासू माँ से खूब बाते होती मेरा डर कम हुआ, पति से बाते हुई और लगा की दुनिया में सिर्फ ख़ुशी है, नए कपड़े, जेवर सब मिलते हैं शादी में। बिदाई का वक्त आया मै ना रोई । हँसते-हँसते बिदा हुई मै , मैं बिलकुल भी न रोई

कुछ महीने बीत गए हैं शादी के, एक एक कर त्यौहार आ रहे हैं सारे , पर रिश्ते पराये हो गए हैं, नहीं नहीं मै ही परायी हो गयी हूँ शायद , अब्ब ससुराल ही मेरा अपना घर है, मेरा शहर मेरी गली मेरा घर सब पराया हो गया
सारे रिश्ते पीछे छुट गए हैं , अब्ब मेरे शहर को मेरे घर आने का इंतज़ार नहीं रहता। अब मै ब्याहता हो गयी हूँ । अब समझ आता है सब कुछ धीरे धीरे , वो बिदाई पे सबका रोना, बिलख बिलख के रोना, शीषक शीषक के रोना, फूट फूट के रोना

हाय रे मेरी अक्ल मै तो रो भी न पायी उस दिन !!!!