वो रोई थी फूट फूट के , अपनी माँ के आँचल में सिमट के, अपने भाई के कंधे से लगके , पिता के सीने से लगके ,बहनों से गले लगके हिचक हिचक के रोई थी अपनी बिदाई पे , सोचा मैंने नए घर जाने से या फिर शायद शहर से गाँव जाने के डर से या फिर गाँव में बिजली नहीं रहती मछर काटते हैं के डर से रो रही है बिचारी नयी नयी ब्याही बहिन
फिर से घर में शादी थी एक और बहिन की, मेरे सबसे करीब थी वो , वो भी रोई और बहुत रोई , शायद अनजाने ससुराल में कैसा व्यवहार मिलेगा वहां के डर से, खाना बनाने के डर से या फिर बर्तन धोने के डर से या फिर उस जीवनसाथी से जिसे २ महीने पहले जानती तक न थी वो , मैं फिर से डर गयी शादी के नाम से, पति के नाम से ससुराल के नाम से
फिर वो दिन भी आया मेरे ससुराल जाने का दिन, सासू माँ से खूब बाते होती मेरा डर कम हुआ, पति से बाते हुई और लगा की दुनिया में सिर्फ ख़ुशी है, नए कपड़े, जेवर सब मिलते हैं शादी में। बिदाई का वक्त आया मै ना रोई । हँसते-हँसते बिदा हुई मै , मैं बिलकुल भी न रोई
कुछ महीने बीत गए हैं शादी के, एक एक कर त्यौहार आ रहे हैं सारे , पर रिश्ते पराये हो गए हैं, नहीं नहीं मै ही परायी हो गयी हूँ शायद , अब्ब ससुराल ही मेरा अपना घर है, मेरा शहर मेरी गली मेरा घर सब पराया हो गया
सारे रिश्ते पीछे छुट गए हैं , अब्ब मेरे शहर को मेरे घर आने का इंतज़ार नहीं रहता। अब मै ब्याहता हो गयी हूँ । अब समझ आता है सब कुछ धीरे धीरे , वो बिदाई पे सबका रोना, बिलख बिलख के रोना, शीषक शीषक के रोना, फूट फूट के रोना
हाय रे मेरी अक्ल मै तो रो भी न पायी उस दिन !!!!
Friday, July 30, 2010
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